हिसार, राजेन्द्र अग्रवालः शिक्षा आयोग का प्रतिवेदन पढ़ते समय एक बार डॉ. राधाकृष्णन ने कहा-मैं उस दिन की कल्पना करता हूं, जब भारत के विश्वविद्यालय राष्ट्र का बौद्धिक व सांस्कृतिक नेतृत्व करेंगे। इस दृष्टि से नया परिवेश बनाने में निर्णायक भूमिका का वहन करेंगे। योजना के कैनवास पर कल्पना का रेखाचित्र कोई भी बना सकता है, पर उसमें यथार्थ का रंग भरना कठिन होता है। डॉ. राधाकृष्णन की कल्पना अनेक बसंत ही नहीं, अनेक दशक देख चुकी है। अब तक उक्त कसौटी पर कोई भी विश्वविद्यालय खरा नहीं उतरा है। आवश्यकता है, इस दिशा में गहरी लगन, विशिष्ट सूझबूझ और सतत पुरुषार्थ की। इस तत्वत्रयी के अभाव में शिक्षा संस्थान उनसे की जाने वाली अपेक्षा को पूरा नहीं कर सकते।
यूरोपीय संसद को संबोधित करते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने एक बार कहा था- ‘अकेले भारत में विज्ञान स्नातकों की संख्या पूरे यूरोप के विज्ञान स्नातकों की संख्या से अधिक है।’ भारत के वैज्ञानिक अमेरिका जैसे समृद्ध और शक्ति-सम्पन्न देश में भी अपनी प्रतिभा का परचम लहरा रहे हैं। किन्तु केवल विज्ञान या भौतिक विधाओं के बल पर यह साख लम्बे समय तक टिकी नहीं रह पाएगी। इसके लिए जरूरी है आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण। जीवन विज्ञान एक ऐसा उपक्रम है, जो उम्र के प्रथम दशक में ही जीवन का विज्ञान सिखाकर विद्यार्थियों को अध्यात्म की दिशा में अग्रसर कर सकता है।
आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व-निर्माण का काम कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं है। इसकी संभावनाओं को ध्यान में रखकर ही आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने शिक्षा प्रणाली के अधूरेपन को भरने के लिए जीवन विज्ञान का प्रकल्प प्रस्तुत किया। इसके परिणाम देखकर कहा जा सकता है कि शिक्षा जगत की कुछ जटिल समस्याओं का समाधान है जीवन विज्ञान