हिसार, राजेंद्र अग्रवाल : भारत की भूमि पर अवतरित महान गुरुओं की चर्चा हो तो स्वयं ही मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। स्वामी युक्तेश्वर बंगाल के श्रीरामपुर शहर के एक साधारण से आश्रम में रहने वाले ऐसे संत थे जो मत्स्य जगत में जन्म लेकर भी सृष्टि के नियंता के साथ एक थे । उनमें अपने ग्रहणशील शिष्यों को ईश्वर -प्राप्त संत के रूप में रूपांतरित करने की शक्ति विद्यमान थी । इनका जन्म श्रीरामपुर, कोलकाता मैं 10 मई 1855 को एक धनवान व्यापारी परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम प्रियनाथ कड़र था। स्कूली पढ़ाई इन्हें बहुत उथली और धीमी प्रतीत होती थी। इन्होंने ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश तो अवश्य लिया किंतु शीघ्र ही पत्नी के देहांत के पश्चात सन्यास ग्रहण कर श्री युक्तेश्वर कहलाए। उनके गुरु लाहिड़ी महाशय थे। मुखमंडल पर प्रत्यक्ष होने वाली अनुशासनप्रियता उनके व्यवहार में भी विद्यमान थी। वे अपने शिष्यों के प्रति नरमी नहीं बरतते थे । शिष्यों की अन्यमनरुकता विषमता और शिष्टाचार के साधारण नियमों का पालन न करने पर वे उन्हें डांट फटकार सुनाते। यही कारण है कि उनके शिष्यों की संख्या सदा थोड़ी ही रहती थी। वह कहते थे " मैं केवल कठोरता की अग्नि में ही तपा कर शुद्ध करने का प्रयास करता हूं।" यथापी उनका हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। वे अपने शिष्यों को बिना किसी उपेक्षा के बहुत प्रेम करते थे । वह केवल उनका योगश्रेम चाहते थे। मानव जाति के कल्याण के लिए उन्होंने अपने प्रिय शिष्य श्री श्री परमहंस योगानंद को अध्यात्मिक संगठन बनाने के लिए उत्प्रेरित किया। उनकी आज्ञापालन करने हेतु योगानंद जी ने अपने गुरु के चरणों में बैठकर प्राप्त किए हुए मुक्तिदायक सत्यों को वितरित करने के उद्देश्य से पूर्व में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया तथा पश्चिम में सेल्फ रिपलाइजेशन फैलोशिप की स्थापना की। जिनसे पंजीकरण कराकर इच्छुक भक्त ध्यान की उच्चतम प्रविधि, क्रियायोग को सीख सकते हैं। वे मितभाषी आडंबरहीन और गंभीर थे । उनका मौन रहना उनकी अनंत ब्रह्म की गहन अनुभूति के कारण था ।किंतु वे कभी भी अपनी ईश्वरनुभूतियों और दिव्य अंतर्दृष्टि से चमत्कार प्रदर्शन नहीं करते थे। वह ऐसा नहीं कहते थे - "मैं भविष्यवाणी करता हूं कि अमुक अमुक घटना घटेगी " वे मात्र संकेत देते थे और उनके वे भविष्य सूचक संकेत कभी मिथ्या सिद्ध नहीं होते थे। योगी कथामृत में "अपने गुरु के आश्रम की कालावधि नामक पाठ में योगानंद जी बताते है", कि श्री युक्तेश्वर जी के पावन चरणों का स्पर्श करते समय मैं सदा ही रोमांचित हो उठता था उनकी ओर से एक सूक्ष्म विद्युत धारा प्रवाहित होती थी। मैं जब भी अपने गुरु के चरणों पर माथा टेकता था, मेरा संपूर्ण शरीर जैसे एक मुक्ति प्रदायक तेज से भर जाता था" उनका अंतर्ज्ञान अंतभेदी था। साथ ही साथ वे अपने शिष्यों व आश्रम में आने वाले के विचारों को पढ़ सकते थे किंतु उन्होंने अपनी इस दिव्य शक्ति का प्रयोग उनके विचारों की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने के लिए कदापि नहीं किया। वह कहते थे " मनुष्य को अपने विचारों में गुप्त रूप से विचरण करने का स्वाभाविक अधिकार है बिना बुलाए तो वहां भगवान भी प्रवेश नही करते; न ही मैं वह हिम्मत कर सकता हूं" उच्चतम कोटी क इन ईश्वर प्राप्त संत के विषय में और अधिक जानने की लालसा को तृप्त करने के लिए पाठक परमहंस योगानंद जी की द्वारा रचित योगी कथामृत के पृष्ठों का अनावरण करें तो उन्हें निश्चय ही लाभ होगा -लेखिका मंजू गुप्ता
Posted On : 12 May, 2022