उत्तर प्रदेश, जौनपुर, रिपोर्टर अनिल कुमार: एक कहावत है या फिल्मी संवाद कहना ज्यादा ठीक है कि, "जमाना हमसे है हम जमाने से नहीं" (We are trendsetters not Foot Followers)। बेहतर समझ के लिए आप गूगल कर सकते हैं। वैसे पूरे मुल्क में "गड़रिया कौम" तकरीबन 12 फीसदी है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी, अरूणाचल से लेकर गुजरात तक और तकरीबन हर सूबे में ये 'कौम' अपनी मौजूदगी अलहदा नामों और उपजितियों से रखती है लेकिन पेशेवर तौर पर सारे कौमी लोग एक ही सिक्के के कई अलग पहलू हैं। मसलन राजनीति, समाज, शिक्षा, उद्योग और वाणिज्य में सब जगह लेकिन कामयाबी बगैर इमारत और इबारत के। हर सूबे में इस कौम की पहचान राजनैतिक और सामाजिक विषयों पर भी बहुत है ख़ासकर दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक और तमिलनाडु में जहाँ पर राजनैतिक और सामाजिक एकजुटता की मिसाल के साथ ही साथ यहाँ पर सूबे के सदर से लेकर वजीरे-आजम तक इस कौम के लोग रहे हैं। कर्नाटक के पूर्व सदर-ए-रियासत रहे "सिद्धारमैया" इस बात के उदाहरण हैं जहाँ पर आज भी "गड़रिया कौम" फलती फूलती नजर आती है।
लेकिन जिस सूबे में इस "गड़रिया समाज" के राजनैतिक, सामाजिक और गैर-सरकारी संगठन तौर पर सबसे अधिक पार्टी और संगठन काम कर रहे हैं और जिस सूबे को राजनैतिक दृष्टिकोण से बेहद अहम भी माना जाता है वहाँ पर ये कौम "भिखारी" से भी बदतर तौर पर जिन्दा है और आज भी फर्श पर पड़ी उठने की कगार पर है। बात यहाँ पर उत्तर प्रदेश की हो रही है जहाँ पर आगामी 2022 में असेम्बली के चुनाव हैं। कुल मिलाकर यहाँ भी कौमी रिहायश तकरीबन 10 फीसदी और हर असेम्बली में आवाम के वोट 20 से 50 हजार के आसपास होने के बावजूद भी राजनैतिक और सामाजिक दरिद्रता आज भी है जबकि यहाँ पर सैकड़ों राजनैतिक पार्टियां, सामाजिक दबाव समूह और गैर सरकारी संगठन जमीनी तौर पर पैरों में परवाज बांधकर काम कर रहे हैं जिनकी हनक पूरे मुल्क में सुनी, पढ़ी और देखी जा सकती है। इन सभी के बावजूद भी यहां पर "गड़रिया कौम" राजनैतिक और सामाजिक रूप से अंतिम पायदान पर काबिज है।
उत्तर प्रदेश में इस "कौम" की राजनैतिक दरिद्रता और पिछड़ेपन का सीधा कारण है कि यहां पर तकरीबन हर शख्स खुद को पथ-प्रदर्शक (Trendsetter) समझता है। हर कोई अपनी बात कहता है, बताता है और सबसे ज्यादा खुद को दिखाता है कि पूरी 'कौम' की रहनुमाई और नेतृत्व का जिम्मा उसी के पास है। जिस कौम के लोग इस तरह घमंड के घोड़े पर सवार हैं और खुद को तथाकथित "पथ-प्रदर्शक" समझते हैं जबकि भीड़ का हिस्सा बनने में शर्म आती है तो उस कौम का बेड़ा गर्क निश्चित है। ऐसा नहीं है कि इस तरह बेड़ागर्क करने वाले लोग दानिशमंद नहीं है बल्कि अच्छा खासा तालीम हासिल लोग हैं बावजूद इसके भी बेशर्मी से अपनी बात मनवाने की नाकामयाब कोशिश करते रहते हैं और दूसरों की किसी भी सफल स्तर की कोई भी बात को अनसुनी करके निकल जाते हैं। सोशल मीडिया के ट्वीटर और फेसबुक पर आप आसानी देख और समझ सकते हैं क्योंकि ज़मीन पर इनका दिखाई देना जरा मुश्किल है और दिखते भी हैं तो फोटो सेशंस करना नहीं भूलते। इस तरह की मानसिकता करीब हर पार्टी, सामाजिक और गैर सरकारी संगठन में है लेकिन एकजुटता के नाम पर सभी अलग-अलग और अपनी-अपनी ढपली बजाने में मशगूल हैं और जिसका नतीजा यह है कि 75 सालों की आजादी में हम आज भी शोषित और बंचित तबके में गिने जाते हैं और मुल्क बड़े सियासतदान इस बात का फायदा उठाते आ रहे हैं और उठाते भी रहेंगे।
उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक और सामाजिक तौर पर विकसित सूबे में "गड़रिया कौम" की असफलता के यही आयाम हैं लेकिन अगर इनको दुरुस्त नहीं किया गया तो फिर वही रास्ते न सिर्फ़ दुरूह और दुर्गम हो जाएंगे बल्कि बंजर भी। खुद की कश्तियां किनारे लगाने के फेर में सभी डूब रहे हैं और इस तरह की मानसिकता और वैचारिक सोच का डूबना लाज़िमी भी है और ये कहावत सच साबित हो रही है कि "हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे"। जब तक लोग भीड़ का हिस्सा नहीं बनेंगे तब तक ये कौम वहीं रहेगी जहां पर आज है।
शेफर्ड उमा शंकर पाल,
प्रखर चिंतक - गड़रिया समाज,
उत्तर प्रदेश