ये ज़िन्दगी बेदर्दी राजा से फकिर बन बैठी है ! आंगन तोड़ नाच रही है !दिलों के पत्थर सवार रही है!भितर कि आत्मा जला रही है! शीशे पर पत्थर चला रही है!टुटने कि आहट भी नहीं है !ये ज़िन्दगी बेदर्दी राजा से फकिर बन बैठी है!छुरा पास वाला घोंप रहा है!दर्द किसी को भी नहीं है!सभी चमगादड़ देख रही है! रक्त पानी सा निकल रहा है!आकाश भी मोन देख रहा है !ये ज़िन्दगी बेदर्दी राजा से फकिर बन बैठी है!ज़िन्दगी वादा भुल बैठी है! सृष्टि का छाया लूट बैठा है! फिर बैठा लाचार मार्ग पर है!फिर यहां दानव लुट बेठे है! तेरा यहां कोई फरिश्ता नहीं है!ये ज़िन्दगी बेदर्दी राजा से फकिर बन बैठी है ! ✒️ कवि :- रणजीत सिंह राजपुरोहित